पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/६१

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परिच्छेद)
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रङ्गमहल में हलाहल।


सौसन,-"तो मैं जाती हूं; अफ़सोस ! अपाने मेरा कहना न माना, इसका मुझे बड़ा रंज हुआ!"

याकूब-"मआज अल्लाह ! यह कैसा इन्साफ़ है?"

सौसन,-"तो फिर आप मेरी बात मानते क्यों नहीं!

याकूब-"इसलिये कि आपने भी तो मेरा कहना नहीं माना!"

सौसन,-"वल्लाह ! इस नाज़ को तो देखो!

याकूब,-"नाज़ की एक ही कही आपने ! अय ! हज़रत ! नाज़ तो नाज़नीनों के पास रहता है, बंदा ती एक अदना सिपाही आदमी है, भला यह नाज़ नखरा क्या जाने!"

इतनी बातें आपस में जबतक हुईं, उतनी देर में कई बार सौसन और याकब की आंखें चार हुई थीं, पर हर बार सौसन की आंखों को ही नीचा देखना पड़ा हो, ऐसा न था, बरन कई बार याकूब की भी आंखें नीची हो गई थीं । इतनी बातें होने के बाद सौसन उस संदली चौकी पर जाकर बैठ गई और बोली,- "लीजिए, अब तो आपका कहना मैने मान लिया न! अब आइए, आप भी तशरीफ़ रखिए।"

इतना सुन याकूब उसके सामने ज़मीन में बैठ गया। यह देख, सौसन भी चट उतर कर उसके सामने ज़मीन में बैठ गई; तब याकूब ने चकपका कर कहा,-

"अल्लाह ! आपने यह क्या ग़ज़ब किया!"

सौसन,-"क्यों कर।"

याकूब,-"यह कि जमीन में तशरीफ़ रखना आपके खिलाफ़ शान हुआ!"

सौसन,-"जनाब ! खाकसारी से बिहतर दुनियां में कोई शै हई नहीं।"

याकूब,-"यह फ़र्माना आपका बजा है, मगर बात यह है कि रुतबे और दर्जे का ख़याल रखना हर हाल में लाज़िम है।"

सौसन,-"मैं उस रुतबे और दर्जे पर ख़ाक डालती हूँ, जो आपकी बहादुरी की कदर न करे, या उस पर अपने तई निसार न कर डाले।"

याकूब,-"आपकी इस मिलनसारी, कद्रदानो और लियाक़त का मैं तहेदिल से शुकुर गुजार होता हूं । मगर यह मुझे हर्गिज़"