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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/७४

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६६
(दसवां
रज़ीयाबेगम।

लगाए, अयूब इस ढंग से बैठा था कि उसे न सोना कह सकते हैं, न बैठना; और उस ढंग को न सोए रहने में गिन सकते हैं, न जागे रहने में । उसकी आंखें न खुली हुई हैं, न मुदी हुईं; इसलिये यह कह सकते हैं कि वह गोया; सोया, जागता हुआसा; या जागता, सोया हुआसा था।

कुछ देर तक ज़ोहरा उसे इस तौर से तकती रही, जैसे काबू में पड़े हुए अहेर को बाधिन निहारती है । फिर उसने एक आह सर्द खेंची और कड़ाई के साथ झिड़क कर कहा,-

"तुम कौन हो जी ! जो इस वक्त, जब कि बेगम साहिबा बाग़ में तशरीफ़ लाई हैं, तुम बेख़ौफ़ यहां पर पड़े पड़े आराम कर रहे हो ! क्या तुम्हें अपनी जान प्यारी नहीं है, जो इस वक्त इस शोख़ी के साथ यहां पर पड़े हुए हो!"

ज़ोहरा ने ये बातें इस तुर्शी के साथ कहीं जिन्हें सुनतेही बेचारा अयूब एक दम चौंक उठा और खड़ा हो, ज़ोहरा के चेहरे की ओर निहारता हुआ बेत की तरह थर थर कांपने लगा। उसकी उस हालत को देख, शायद ज़ोहरा के जलेभुने कलेजे में कुछ तरावट पहुंची होगी, इसलिये वह कुछ देर तक कटीली आंखों से अयूब की ओर घूरती रही और फिर यों बोली,-

"तुम्हारा नाम क्या है?"

अयूब,-"बन्दे को लोग 'अयूबखां' कहते हैं।"

ज़ोहरा,-(जैसे छकु न जानती हो) " ऐं ! क्या वही अयूब तुम हो, जिसने उस रोज़ याकूब जैसे बहादुर शख़्स के साथ तल्वार खेलो थी!!!

अयूब,-" जीहां! आपने मुझे ठीक पहचाना।"

ज़ोहरा,-"दो घंटे का अर्सा हुआ कि चोबदार ने बाग़ में आवाज़ लगा दी थी कि,-'बेगम साहिबा तशरीफ लाती हैं; फिर भी तुम यहां पर क्या समझ कर बैठे रहे ? क्या तुम्हें इस बात का ज़रा भी ख़ौफ़ नहीं है कि बेगम साहिबा की मौजूदगी के वक्त बाग़ के अन्दर जो मर्द पाया जाता है, उसका सर तराशा जाता है!!!"

अयूब,-(घबरा कर ) "हज़रत ! यह बात मैं बखूबी जानता हूं, मगर आज दर्देसर के बायस मेरी तबीयत ऐसी ख़राब थी"