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पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/७६

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६८
(दसवां
रज़ीयाबेगम।

बच सकता?"

इस पर ज़ोहरा ज़मीन की ओर देखती हुई कुछ देर तक चुप रही, फिर कहने लगी,-

"सिर्फ़ एकही सूरत है, कि जिससे तुम्हारी जान बच सकती हैं।

अयूब,—(जल्दी से ) “वह कौनसी सूरत है ! बराहे मिहर- बानी, जल्द फ़र्माईए।"

जोहरा,-" यही कि किसी ढब से तुमको यहांसे बेदाग़ निकाल दूं और तुम्हारे एवज़ में मैं अपना सर गवाऊं।"

अयूब,-"हर्गिज़ नहीं; मैं यह हर्गिज नहीं चाहता कि मेरी जान के बदले एक बेगुनाह औरत की जान मुफ्त में जाय ! इससे तो मैं अपना सिर गंवाना ही बिहतर समझता हूँ।"

ज़ोहरा,-" खैर जैसी खुसी तुम्हारी; तो अब मैं तुमको बेगम साहिबा के रूबरू पेश करूं न?"

अयूब,-( हाथ मलकर ) "अफ़सोस ! जब कोई चाराही नहीं तो फिर जो मुनासिब समझिए, कीजिए । या इलाही ! मेरे नसीब में यह भी था!!!"

अब अयूब की बेचैनी हद्द दर्जे को पहुंच गई थी और उसकी आंखों से आंसू बहने लग गए थे । उसकी यह हालत देख कर जोहरा के ओठों पर मुस्कुराहट नाच उठी और उसने यों कहा,- "सुनिए, साहब ! एक दूसरा तरीका मुझे अभी और सूझा है। जिससे आप और हम -दोनों की जाने बच सकती हैं।"

अयूब,-(उसके चेहरे की ओर देख कर ) “वह कौनसा दूसरा तरीका आपने सोचा है!"

जोहरा,-"वह, यही है कि आपके साथ मैं भी यहांसे निकल भागू।

अयूब,-(ताज्जुब से ) "क्या आप भी मेरे हमराह होंगी?"

जोहरा,-( उसे धूरती हुई)सिवा इसके और कोई सूरत नहीं है कि आपके धड़ पर सर कायम रह सके ! सुनिए, बात यह हैं कि किसी बांदी ने अभी बेगम साहिबा के कानों तक यह ख़बर पहुंचाई है कि,-' एक शख्स बाग़ की फलां जगह पर छिप कर बैठा हुआ है और ओट में से औरतों को तक रहा है।' इस ख़बर