पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/७९

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परिच्छेद)
७१
रङ्गमहल में हलाहल।


काबिल न रही।"

अयूब,-(ताज्जुब से)"कर्मों?"

ज़ोहरा,-" इसलिये कि इस तल्वार को, जो मेरे हाथ में है, मैं आपको इसलिये नहीं दे सकती कि इस पर मेरा नाम खुदा हुआ है; और दूसरी तल्वार लाने के वास्ते मुझे महल सरा तक जाना पड़ेगा, मगर अब मैं इस जगह से हट नहीं सकती, वर न आपकी जान ख़तरे में आ जायगी।"

अयूब,--"वल्लाह, अभी तो आप मुझे यहांसे हटा कर कहीं पर ले जाना चाहती थीं न?"

ज़ोहरा,--बेशक, इस बात से मैं इन्कार नहीं करती और उस मुकाम की, जहां पर मैं आपको लेजाया चाहती हूं-राह यहीं पर है। ज़रा आप यहांसे हटिए तो?"

यों कह कर ज़ोहरा ने अयूब को उस संगमर्मर की चौकी के पास से हटाया, जिस पर कुछ देर पहिले वह बैठा था, या जिसका ढासना लगाए हुए था । उसे उस चौकी के पास से हटा कर ज़ोहरा ज़मीन में बैठ गई और फिर उसने उस चौकी के पास बने हुए एक संगमर्मर के चबूतरे की न जाने कौनसी कल बाई कि एकाएक, हलकी आवाज़ के साथ संगमर्मर के चबूतरे के ऊपर वाला ढाई हाथ लंबा और दो हाथ चौड़ा पत्थर भीतर की ओर झूल गया और वहां पर एक सुरंग दिखलाई दी । यह हाल देख अयव दंग गया और उसने मन ही मन इस बात का निश्चय कर लिया कि,.. " जोहरा मामूली औरत नहीं है और इसके हाथ से निकल भागना भी आसान नहीं।"

ज़ोहरा,-" लिल्लाह, अब आप जल्द इसके अन्दर चलिए। आइए, इस सुरंग में उतरने के लिये सीढ़ियां बनी हुई हैं, उनकी मदद से नीचे आप उतर जाइए।

अयूब,--"वल्लाह, क्या अकेला मैं ही आगे चलूँ!"

ज़ोहरा,-" नहीं, भई ! मैं भी आपके पीछे पीछे चलती हूं।"

अयूब,-"मगर, नहीं, बी, जोहरा ! यह रास्ता आपका जाना हुआ है. इसलिये पेश्तर आपको कदम बढ़ाना चाहिए।"

ज़ोहरा,--( झल्लाकर ) " अह ! ज़िद न कीजिए; इस बेशकीमत वक्त को फ़जूल जाया न करिए, चलिए, जल्द इसके अन्दर क़दम