पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/८०

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७२
(दसवां
रज़ीयाबेगम।

रखिए।"

अयूब,--"जब तक आप आगे तशरीफ़ न ले चलेंगी, बन्द हर्गिज़ इसके अन्दर क़दम न रक्खेगा।"

ज़ोहरा,-( तुर्शी से ) " तो क्या तुमको मुझपर भरोसा नहीं है ? और तुम क्या अपने दिल में यह सोच रहे हो कि,-'यह औरत मुझसे दग़ा करेगी ?' अजी, हज़ारत ! अगर मुझे आपके साथ बुराई ही करनी होती तो मैं अब तक आपको बेगम साहिबा के सामने पेश न कर दिए होती?"

अयूब,--" आपका फ़र्माना बजा है और यह बात मैं बखूबी समझ रहा हूं कि आप इस वक्त जो कुछ कर रही हैं; फ़क़त मेरी बिहतरी के लिहाज़ से; मगर मेरा दिल न जाने क्यों, अब आपका साथ छोड़ना नहीं चाहता।"

ज़ोहरा,-"वल्लाह आलम! अजो ! मैं क्या आपका साथ छोड़ती हूं ! लिल्लाह ! चलिये भी! कदम तो बढ़ाइए!"

अयूब,-" पेश्तर आप कदम उठाइए।"

अयूब की इस ज़िद पर ज़ोहरा को यहां तक गुस्सा चढ़ आया कि उसने जिस तरह उस चबूतरे के पत्थर को अलग किया था, उसी भांति उसे बराबर कर दिया और तब जहरीली निगाहों से अयूब की ओर बेतरह घूर कर कहा,-

"कम्बल ! जब कि तेरी मौतही तेरी दामनग़ोर हुई है तो वह क्योंकर किसीके टाले टल सकती है ! ले, हरामजादे ! अब अपने किए का एवज़ ले।"

यों कह कर उसने अपने गले में पड़ी हुई सुनहली जंजीर में की सीटी उंगलियों में दवाई और वह चाहती थी कि उसे ओठों के बीच में दबाकर बजाबे,-कि अयूब ने गिड़गिड़ाकर कहा,- ज़रा, एक लहज़ो और ठहर जाइए । आख़िर तो अब मुझे मरनाही है, तो एक चीज़ आपकी नज़र क्यों न करदूं कि यह जब तक आपके पास रहेगी, आप मुझ कम्बल की-चाहे किसी ख़याल से हो-याद तो किया करेंगी?"

यों कहकर अयूब ने अपने कुत्ते के जेब में से एक सुनहली डिबिया निकाली और उसे खोल, और उसके अन्दर से झरबेर के घराबर मोतियों की एक जोड़ी जोहरा के हाथ पर रखदी और कहा,-