पृष्ठ:रज़ीया बेगम.djvu/८९

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परिच्छेद)
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रङ्गमहल में हलाहल।


खां के शागिर्द अयूब को तो आप बखूबी पहचानती हैं?"

रज़ीया,-( उसे उठा कर और हंस कर ) "बेशक मैं उसे बखबी पहचानती हूँ और मेरी छोटी बहन जोहरा की दिल्लगी के वास्ते याकूब का शागिर्द अयूब ही चुना जा सकता है; क्यों।"

ज़ोहरा,-( शर्माकर और सिर झुकाकर ) " जी, हां, हुजूर!"

रज़ीया,-"तो तू शौक से अयूब के साथ अपना दिल शाद कर, मगर पेश्वर मेरी दिल्लगी का इन्तजाम कर देना तुझे लाज़िम है।"

जोहरा,-" अय, तौबः ! यह हुजूर क्या कहने लगीं! सरकार जब तक मैं आपको खुश न कर लूंगी, दुनियां की लजों को हराम समनंगी । यह तो मेरा फर्ज है कि पेश्तर मैं आपके दिल को खुश करूं।"

रजनीया,-( उठकर और उसे गले लगा कर ) " तो प्यारी; जोहग! मैं आज दिन भर इस बात पर गौर करूंगी और शाम को तुझे इस बारे में हुक्म दूंगी कि अब क्योंकर कोई कार्रवाई करनी चाहिए।"

ज़ोहरा,-( इधर उधर देखकर ) " मगर हुजूर ! यह काम व आसानी खातिरखाह हो जायगा, ऐसी मुझे उम्मीद नहीं है।"

रज़ीया,-(घबरा कर)" क्यों, क्यों?"

ज़ोहरा,-" इसकी वजह यह है कि हुजूर की सहेलियों में से सौसन याक ब मियां पर आशिक हुई हैं और गुलशन अयूब पर; और जहां तक मैंने उन आशिक माशूकों के रंग ढंग देखे और उन पर गौर किया, मेरा दिल यही कहता है कि इसमें कामयाबी हासिल करने के लिये बड़ी बड़ी पेचीदा उलझनों को सुलझाना पड़ेगा।"

रज़ीया,-(हैरान होकर ) " हैं ? यह क्या सच है ! जोहरा! यह तू क्या कह रही है?"

ज़ोहरा,-" हज़रत ! मैं जो कुछ कह रही हूं. उसमें एक नुख्ता भी ग़लत नहीं है; और अगर हुजूर मुझे इजाजत देंगी तो मैं उन आशिक-माशूकों की दिल्लगी हुजर को दिखला भी दूंगी।

रज़ीया,-(गुस्से में भरकर ) "अगर, ऐसी हर्कतें उन कम्बो की तू मुझे दिखला सकेगी तो मैं फ़ौरन सौसन और गुलशन को हलाक कर डालंगी।"

(११) न०