ज़ोहरा,-"जुरूर ! मैं वह तमाशा सरकार को दिखलाऊंगी,
मगर मुआफ़ कीजिएगा, मेरी यह मजाल नहीं है कि मैं हुजूर को
कोई सलाह दे सकं; मगर हां! इस बात का कहना मैं मुनासिब
समझती हूँ कि जब तक हुजूर मियां याक ब को अपनी मुट्ठी में
न कर लें, बी सौसन या गुलशन को छेड़ना मुनासिब न होगा।
आगे हुजूर जैसा मुनासिब समझें।
रजीया,-(सोंचकर ) "बेशक, तेरी इस राय की मैं कदर करती हूँ और उसे अमल में लाना भी बहुत ज़रूरी समझती हूँ ! खर तो अब मैं महल में जाती हूं, क्योंकि सौसन और गुलशन फूल चीन कर अब आयाही चाहती हैं।"
ज़ोहरा,--बेहतर! मगर जो वे यह पूछेगी कि,-" बेगम साहिबा कहां गईं; ' तो मैं क्या कहूँगी ?"
रजीया,--"तू कह दीजियो कि वेगम साहिबा आज अकेले में बैठकर उस लड़ाई के तय करने के बारे में गौर करेंगी, जो काश्मीर की सरहद पर आज कल हो रही है। इसीलिये वे महल में चली गई हैं और यह हुक्म देती गई हैं कि, जब तक मैं किसीको तलब न करूं, मेरे पास आज कोई न आवे ।"
ज़ोहरा.-" वल्लाह ! हुजूर ने तो अच्छी बन्दिश बांधी हैं!”
रज़ीया--"क्या, कहूँ, जोहरा! मेरा दिल निहायत बेचैन हो रहा है । खर तो अब मैं यहांसे जाती हूं और आज मैं मोतीमहल वाली बारह दरी में रहूंगी। तू एक घंटे के बाद मेरे पास उस पोशीदः राह से आइयो, जो बोग़ की उस ( कान में बतला कर) जगह से भीतर ही भीतर मोतीमहल तक गई है।"
ज़ोहरा,-" जो इर्शाद ।”
निदान, फिर तो रजीया अकेली महल के अन्दर चली गई और उसके जाने पर जोहरा ने इधर उधर देखकर बेगम के हुकं की नली अपने मुंह से लगाई और दो चार दम बैंचकर वह श्राप ही आप कह उठो ! 'इनशा अल्लाह ताला ! अगर मेरी खुशकिस्मती ने अब मेरा पूरा साथ दिया तो, रज़ीया ! तो मेरा नाम जोहरा कि जो मैं तेरे साथ देहली के तख्त पर बैडूं। बेगम ! अब तुम जाती कहां हो ! खुदा ने चाहा तो अब जैसा जैसा मैं चाहूंगी; वैसा ही वैसा तुम्हें नाच नचाऊंगी।'