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(बारहवां
रज़ीयाबेगम।


बारहवां परिच्छेद

इश्क है इश्क !!!

"क़फ़स है, ज़ह है, मूज़ी है, कयामत है इश्क !
कह है, जुल्म है, बेदाद है, आफ़त है इश्क !
बखुदा बाइसे सदतअनों मलामत है इश्क !
शोलए खिरमने दीनो दिलो ताक़त है इश्क !!!

(आग़ा)

जिस घटना का हाल ग्यारहवें परिच्छेद में लिखा गया है, उसके आगे का हाल इस परिच्छेद में हम लिखते हैं।

आज दिन भर से रजीया बेगम अपने सीसमहल मैं है, और बाग से आने पर अब तक अपनी सहेलियों से नहीं मिली है। सिवाय ज़ोहरा के उसके पास कोई नहीं जाने पाता है और सौसन तथा गुलशन के पूछने पर ज़ोहरा उन दोनों को यही जवाब देती है कि,---"सुलताना बेगम साहिबा काश्मीर की सहद की लड़ाई पर कुछ गौर कर रही हैं, इस वास्ते आज वह किसीसे मिलना नहीं चाहतीं।"

योही धीरे धीरे दिन बीत गया और रात आ पहुंची । यद्यपि रात अंधेरी और जाड़े की थी, पर कामीजनों के लिये ऐसा समय बड़े काम का होता है । सो ज़ोहरा दो तीन घड़ी रात बीतने पर चुपचाप महल से बाहर हुई और बाग़ में होती हुई, बाग़ के बाहरी हिस्से में उस ओर पहुंची, जिधर याकूब का देरा था।

महल से मिला हुआ बाग़ बहुत बड़ा था और वह दो हिस्सों में बंटा हुआ था। जिनमें बाग़ का बड़ा हिस्सा तो महल से सरोकार रखता था और उसका दूसरा या छोटा हिस्सा जो कि लगभग बीस पच्चीस बीघा जमीन को घेरे हुए था, मालियों और कई किस्म के लोगों के बर्तने में आता था। उसी हिस्से में याकूब और अयूब के रहने के लिए भी अलग अलग बंगले बने हुए थे; जिसमें से याकूब के बंगले के बाहर पेड़ की ओट में छिपी हुई ज़ोहरा