पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१०

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में प्रबंध का विचार पद्माकर के "रामरसायन" से अधिक प्रौढ़ है। भक्तों की अपेक्षा रत्नाकर कम रसमय किंतु अधिक सूक्तिप्रिय हैं-रीति-कवियों की अपेक्षा वे साधारणतः अधिक भावनावान्, अधिक शुद्ध और गहन संगीत के अभ्यासी हैं। हम कह सकते हैं कि भक्तों और शृंगारियों के बीच की कड़ी रत्नाकर के रूप में प्रकट हुई थी। यह नहीं कहा जा सकता कि “गंगावतरण" का प्रबंध निर्माण करते हुए रत्नाकर के सामने कौन सा आदर्श था। रामचरितमानस का प्रबंध अधिक बलशाली और दुरतिगम्य है। बालकांड और उत्तरकांड के प्रबंध-कविता आदि तथा अंत में तुलसीदास ने अपने काव्य पर से देश और काल के बंधन हटा देने की चेष्टा की है। पात्र का बंधन भी उन्होंने दूर किया है। परंतु इस विषय में उन्हें सफलता केवल राम संबंध में हुई है। मानस में राम का वास्तविक रूप अरूप ही है। शेष पात्रों को तुलसीदास ने रूप-रेखा दी है और उनमें गुणों का आरोप भी किया है। केवल राम में वह बात नहीं है। कवि ने आकाश-पाताल एक कर दिए हैं। क्योंकि हनूमान पाताल में पैठकर महिरावण का वध करते हैं और आकाश से उड़कर लंका-पार जाते हैं-पहाड़ उठा लाते हैं। राम के अवतार के कई प्रसंग गिनाकर काल-संकलन का निर्वाह करने की चेष्टा की गई है। तुलसी के इस महत् अनुष्ठान से प्रायः सभी परवर्ती कवि प्रभावित हुए हैं, यद्यपि यह प्रभाव परिस्थिति के अनुसार भला और बुरा दोनों पड़ा है। ("गंगावतरण" को देखने से उसमें भी मानस की छाया मिलेगी। सगर-सुतों का पाताल-प्रवेश, गंगा का स्वर्ग से आगमन-आकाश-पाताल की खबर यहाँ भी लाई गई है। समय-संकलन में रत्नाकर जी अवश्य चूक गए हैं। सगर-सुतों के भस्म होने के कई पीढ़ियों बाद उनके मोक्ष का जो कार्य भगीरथ ने किया, वह उतना प्रभाव नहीं डालता । यदि "गंगावतरण" का मुख्य आशय यही मोक्ष माना जाय तो रत्नाकर जी को मोक्ष-व्यापार के प्रति अधिक दत्तचित्त होने की आवश्यकता थी। आरंभ में यदि इतना विलंब हो गया था तो कार्य की गुरुता और विफल प्रयासों का अधिक महत्त्वपूर्ण वर्णन अपेक्षित था। रत्नाकर जी काव्य की नियताप्ति के साथ अधिक तनिष्ठ क्यों नहीं हुए। संभवतः “मानस” की छाया पड़ी है। परंतु मानस में नियताप्ति की चेष्टा का अभाव स्वाभाविक है, क्योंकि उसमें नियत (सीमा) कुछ है ही नहीं। उसमें तो उसका सब ओर से अतिक्रमण ही अभीष्ट जान पड़ता है। गंगावतरण के कवि यहाँ उसका अनुकरण करते समय यदि अधिक सावधान रहते तो अच्छा होता। रामचरितमानस भाषा-साहित्य के कानन का वह विशाल वट है जिसकी शाखा-प्रशाखाएं नितांत अनर्दिष्ट दिशाओं में फैलकर छाया-दान करती हैं। इस अक्षयवट की यह स्वाभाविकता है कि जहाँ तहाँ, इसके बरोह शेपकों, अंतकथाओं और प्रसंग-विपर्यय के रूपों में डालों से निकलकर भूमि में गड़े देख पड़ते हैं। यदि ये बरोह दूसरे पेड़ों में हों तो मानों ऐसा जान पड़ेगा कि वे वृक्ष उखड़ गए हैं और उनको टिकाने के लिए उनके नीचे टेक लगे हुए हैं, रामचरितमानस में जो बात परम स्वाभाविक जान पड़ती है, वही लघुतर रचनाओं में किमाकार अथवा असंभव सी हो जाती । गंगावतरण की कथा भी रामचरित की ही भाँति पौराणिक होने के कारण अलौकिक चित्रों