पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१०५

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हम अपने काँ बचत सहस स्वन-मुद्रा पर । लेन होहि जिहि लेहि बेगि सो आनि कृपा कर"॥ तब महिषी सैब्या सभंग-स्वर कंपित-बानी । बोली नृपहिँ निहारि जोरि कर सोच-सकानी ॥९॥ "महाराज ! हम होत बिकन नहिँ उचित तिहारौ । तातै प्रथम बैंचि हमकाँ ऋन-भार निवारौं ॥ जौ एतहु पर चुकै नाहिँ सब ऋन ऋषिवर कौं। तो चाहै सो करहु ध्यान धरि उर हरि-हर कौ" ॥१०॥ यौँ कहि लगी पुकारि कहन भरि बारि बिलोचन । "कोउ लै मोल हमैं करि कृपा करें दुख-मोचन"॥ निज जननी दृग बारि हेरि बालक बिलखायौं । है उदास अंचल गहि आनन लखि मुरझायौ ॥ ११ ॥ बहुरि तोतरे वचन बोलि आरत-उपजैया । बूझयो "एँ ये कहा भयौ रोवति क्यों मैया" ॥ सुनि बालक की बात अधिक करुना अधिकाई । दंपति सके न थाँभि आँसु-धारा बहि आई ॥१२॥ जदपि विपति-दुख-अनुभव-रहित रुचिर लरिकाई । मात पिता की गोद छाँड़ि नहिँ मोद-निकाई ॥ रोवत तऊ देखि तिनकौं लाग्यो सिसु रोवन । इनके कबहुँ कबहुँ उनके आनन-रुख जोवन ॥१३॥