पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१३५

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तद्यपि माँगत यह बर आयसु पाइ तिहारी। तव प्रसाद बैकुंठ लहै सब प्रजा हमारी"॥ "एवमस्तु" कहि कहयो बहुरि हरि विपति-बिदारन । "अवधपुरी के कीट पतंगहु लौं तुव कारन ॥ १०४ ॥ पाइ सकत हैं परम धाम कछु संसय नाही। ऐसेहि पुन्य-प्रताप-पुंज राजत तुम माहौँ । पै एतोही दिये तोष मन नाहिँ हमारे। कहहु औरहू जो कछु मन मैं होहि तिहारे" ॥ १०५ ॥ यह सुनि गद्गद स्वरनि कयौ महिपाल जोरि कर । "करुनासिंधु सुजान महा सुजान महा आनंद-रत्नाकर ॥ अब कोउ इच्छा रही होहि मन माहिँ कहै तो। पै तौ हूँ यह होहि सुफल बर वाक्य भरत का ॥ १०६ ॥ जन का सुख होइ सदा हरिपद-रति भावै । छूटें सब उपधर्म सत्व निज भारत पावै ॥ मत्सरता अरु फूट रहन इहिँ ठाम न पावै । कुकबिनि का बिसराइ सुकवि-बानी जग गावै ॥१०७॥ बोले हरि मुद मानि "अजहुँ स्वारथ नहिँ चीन्यौं । साधु साधु हरिचंद जगत हित मैं चित दीन्यौ । इहि जुग तव कुल राज्य माहिँ है ऐसा ही। तुम्हें देत सकुचाहिँ न बर माँगी कैसा ही" ॥१०८।।