पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१३९

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परम रम्य सुखरासि कासिका पुरी सुहावनि । सुर - नर -मुनि-गंधर्व - यच्छ -किन्नर-मन-भावनि ॥ संभु सदासिव बिस्वनाथ की अति प्रिय नगरी। बेद पुराननि माँहिँ गनित गुनगन मैं अगरी ॥१॥ तीन लोक दस-चार भुवन से निपट निराली । निज त्रिसूल पर धारि संभु जो जुग जुग पाली ॥ जाके कंकर मैं प्रभाव संकर को राज। जम-किंकर जिहिँ जानि भयंकर दूरहि भाजै ॥२॥ जामैं तजत सरीर पीर जग जनम-मरन की। छूटति बिनहिँ प्रयास त्रास जम-पास परन की ॥ जामैं धारत पाय हाय करि कूटत छाती। पातक-पुंज परात गात के जनम सँघाती ॥३॥ जाके गुन गंभीर-नीर-निधि के तट ही थल । लुठत पुंज के पुंज मंजु मुकती मुकताहल ॥ पै जाके बासी उदार चित सुकृति सभागे । लघु बराटिका सम समझत निज आनँद आगे ॥४॥ सुचि सुरराज-समाज जाहि सेवन कौँ तरसत । दरस परस लहि सरस आँस आनँद के बरसत ॥ ब्रह्मा विष्णु महेस सेस निज वैभव भूले । धरि धरि बेस असेस जहाँ बिचरत सुख फूले ॥५॥ साँचा:कॉपीराइटउल्लंघन