पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१४०

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पसारै। सुठि सुढार त्रिपुरारि पिनाकाकार बसी है। उत्तर बरुना औ दक्खिन को कोट असी है। उत्तर-बाहिनि गंग प्रतिचा प्राची दिसि बर। उन्नत मंदिर मंजु सिखर जुत लसत प्रखर सर ॥६॥ बम-बम की हंकार धनुष-टंकार जाको धमक-प्रहार पापगिरि-हार विदारै॥ जिहि पिनाक की धाक धरामंडल मैं मंडित । जासौं होत त्रिताप-दाप त्रिपुरा-सुर खंडित ॥७॥ घेरी उपवन बाग बाटिकनि साँ सुठि सोहै। ज्यौँ नंदन-बन बीच बस्यौं सुरपुर मन मोहै ॥ बापी कूप तड़ाग जहाँ तह बिमल बिराजै । भरे सुधा सम सलिल रसिकजन हिय लौँ भ्राजै ॥८॥ धवल धाम अभिराम अमित अति उन्नत सोहैं। निज सोभा सौं बेगि बिस्वकर्मा मन मोहैं । ध्वजा पताका तारन सौं बहु भाँति सजाए । चित्रित चित्र विचित्र द्वार पर कलस धराए ॥९॥ हाट बाट घर घाट घने अति बिसद बिराज गुदड़ी गोला गंज चारु चौहट छबि छाजै ॥ नीकी निपट नखास सुघर सट्टी सब सोहैं। कल कटरा बर बार मंजु मंडी मन मोहैं ॥१०॥