पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१४१

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चारहु बरन पुनीत नीतजुत बसत सयाने । सुंदर सुघर सुसील स्वच्छ सदगुन सरसाने ॥ जातिधर्म कुलधर्म मर्म के जाननिहारे। मर्यादा-अनुसार सकल आचार सुधारे ॥११॥ सब विधि सबहिँ सुपास सुलभ कासी-बासिनि कौँ । निज-निज रुचि अनुसार लहहिँ सब सुख-रासिनि काँ॥ असन बसन बर बाम धाम अभिराम मनोहर । ज्ञान गान गुन मान सकल सामग्री बर ॥१२॥ लहहिँ साधु सतसंग ज्ञानरत बिमल बिबेकहि । विद्यावाही पढ़हिँ ग्रंथ गुनि गृढ़ अनेकहि ॥ पावहिँ सद उपदेस धर्म-रत कर्म सुधारें। जोगी जंगम साधि जोग जप तप मन मारें ॥१३॥ धनरत करि ब्यापार बिबिध धन-भार भरावत । सिल्पकार अति निपुन कला को सार सरावत ॥ कामिनि हूँ काँ कुपथ चलत नहिँ खलत अँधेरी । दीपति दामिनि सरिस बार-कामिनि बहुतेरी ॥१४॥ कहुँ सज्जन द्वै चार चारु हरि-जस-रस राँचे । पुलकित तन मन मुदित सील सद्गुन के साँचे ॥ धूर भव-विभव बिचारे। भगवत-लीला-ललित-मधुर-मदिरा मतवारे ॥१५॥ भक्तिभाव भरपूर