पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१४२

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गौरव - गूढाचल हरि-हर-गुन-गन गूढ़ उमगि अति गुनत गुनावत । पावन चरित अमंद दंदहर सुनत सुनावत ॥ पाप-ताप के दाप रयो जो तपि महि हीतल । प्रेम-बारि दृग ढारि करत ताकौँ सुचि सीतल ॥१६॥ कहुँ परम्हंस प्रसंस बंस मन-मानसचारी । जीवन मुक्ति महान मंजु मुकता अधिकारी। उज्ज्वल प्रकृति प्रवीन हीन-भव-पंक पच्छधर । जगज्जाल-जंजाल-गहन-बन अगम पारकर ॥१७॥ उतंग - बर - शृंग - बिहारी। सुभ गति बिमल बिबेक एकरस दृढ़-ब्रत-धारी ॥ दलन मोह-तम-तोम भासकर भावत नीके। बिसद विशुद्धानंद रूप भूषन पुहुमी के ॥१८॥ सिखा सूत्र औ दंड कमंडल सब करि न्यारे । दिब्य सरीर सतोगुन जनु सोहत तन धारे॥ द्वैत तथा अद्वैत बिसिष्टाद्वैत प्रचारत। ब्रह्म जीव बर छीर नीर को न्याव निवारत ॥१९॥ कहुँ पंडित सु उदार बुद्धि-धर गुन-गन मंडित । सास सस्त्र संग्राम करन सुरगुरु-मद खंडित ॥ बिद्या-बारिधि मथन माहिँ मंदर अति. नीके। कठिन करारे बेद बिदित ब्यौहार नदी के ॥२०॥