पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१५१

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सघन सिखा सुठि ग्रंथि भाल पर तिलक लगाए । हाथ सुपावन पाथ पूरि लोटा लटकाए । कटि धोती पनरंगी धरे गमछा कल काँधे । उतरयौ बसन पछारि गारि आसन में बाँधे ॥६६॥ काँ॥ पुनि पुंजनि के पुंज पधारत पाठ पढ़न को । विद्याबाट बिराट बिकट बिय बेगि बढ़न बहु बिधि बाद विबाद बिनाद करत मनभाए । पाथी चाँगा माहिँ राखि निज कॉरख दवाए ॥६७।। कोऊ गुरु-गृह-दिसि कोऊ पाठसाला का धावत । निज-निज इच्छा सरिस सास्त्र सिच्छा तहँ पावत ।। पढ़ि-पढ़ि परम प्रसन्न पलटि पुनि डेरनि आवत । आपस मैं बतरात वताई बात लगावत ॥६८॥ तब सब यथासँजोग उदर-पोषन बिधि बाँधत । कोउ छेत्रनि दिसि चलत धाम कोउ निज कर राँधत ॥ कोउ कहुँ न्यौता पाइ चलत अति चपल चाह सौँ । भानन अन्न प्रसन्न-बदन कोउ उठि उछाह सौ ॥६९।। इहि बिधि सुविधा बहु विधान साँ विविध लगावत । त्रितिय जाम बिस्राम भोजनादिक करि पावत ॥ जहँ तह जित तित जाइ आइ वतराय बैठि उठि । करि ठठोलि हँसि बोलि बितावत सेष दिवस सुठि ।।७०॥