पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१६४

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मदजल पुस्कर पान सुभग सौरभ वगरावत । मधुकर-निकर अथोर डोर जाकी लगि धावत ॥ गति अति सुंदर सुघर जाहि जानत कोबिद जन । जिहिँ अनुहरत सुहात मंद गवनी रवनीगन ॥२३॥ तीनि जाति के जे करिबर ग्रंथनि मैं गाए । सब सुभ लच्छन सहित स्वच्छ सोहत मनभाए । पुनि संकीरन विविध भाँति के मिस्रित लच्छन । दूषन भूषन सोधि लिए मनवोधि बिचच्छन ॥१३२॥ मृगा सु मंजुल गात लिए लघुता हरुवाई। मदजल में रुचि स्याम दृगनि कछु दीरघताई ।। पंच हस्त परिमान उच्च कर सप्त प्रलंबित । अष्ट हस्त परिनाह माँहिँ गति अति अविलंबित ॥१३३॥ थूल काय गति मंद मंद लघु दृग लंबोदर । बली बलित उर कच्छि कुच्छि जुत पेचक लरबर ॥ सदल त्वचा गुरुग्रीव श्रवत, मद-पीत-बरन बर । डील डौल मैं अधिक मृगा सौं एक हाथ भर ॥१३४॥ बिसद बिसाल सुढाल काय अवयव अलगाने । धनुष पीठि कल कोलजंघ समगात सयाने ॥ मधुरुचि दीरघ दंत हरित मदवंत भद्र बर । मंदहु तँ परिमान माहिँ इक हाथ अधिकतर ॥१३५॥