पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१७७

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गोकुल के गाँव की गली में पग पारत ही भूमि के प्रभाव भाव और भरिदै लगे। ज्ञान-मारतंड के सुखाए मनु मानस काँ सरस सुहाए घनस्याम करिब लगे ॥२४॥ [ उद्धव का व्रज में पहुँचना] दुख सुख ग्रीषम औ सिसिर न ब्यापै जिन्हें छापै छाप एकै हिये ब्रह्म-ज्ञान-साने मैं । कहै रतनाकर गंभीर सोई ऊधब को धीर उधरान्यौ आनि ब्रज के सिवाने मैं ॥ औरै मुख-रंग भयो सिथिलिन अंग भयो वैन दवि दंग भयो गर गर्वाने मैं । पुलकि पसीजि पास चाँपि मुरझाने काँपि जानें कौन बहति बयारि बरसाने मैं ॥२५॥ धाई धाम-धाम 6 अवाई सुनि ऊधव की बाम-बाम लाख अभिलापनि सौँ भत्रै रही। कहै रतनाकर पै बिकल बिलोकि तिन्हें सकल करेजी थामि आपुनपा ख्वै रही ॥ लेखि निज-भाग-लेख रेख तिन आनन की जानन की ताहि आतुरी सौं मन म्बै रही। आँस रोकि साँस रोकि पूछन-हुलास रोकि मुरति निरास की सी आस-भरी ज्वै रही ॥२६॥