पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१८९

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नैननि के नीर औ उसीर पुलकावलि सौं जाहि करि सीरौ सीरो वातहिँ बिलासँ हम । रतनाकर तपाई बिरहातप की श्रावन न देत जामैं 'विषम उसासैं हम ॥ साई मन-मंदिर तपावन के काज रावरे कहे ते ब्रह्म-जोति लै प्रकासैं हम। नंद के कुमार सुकुमार कौँ बसाइ यामै ऊधौ श्रव हाइ कै बिसास उदबासै हम ॥५७॥ प्राज जोहैं अभिराम स्याम चित की चमक ही मैं और कहा ब्रह्म की जगाइ जोति जोगी । कहै रतनाकर तिहारी बात ही सौं रुकी साँस की न साँसति के औरौ अवरोहेंगी। आपुही भई हैं मृगछाला ब्रज-बाला सूखि तिनपै अपर मृगछाला कहा साहेगी । ऊधौ मुक्ति-माल बृथा मढ़त हमारे गएँ कान्ह बिना तासौँ कहो काको मन मोहँगी ॥५८॥ कीजै ज्ञान-भानु को प्रकास गिरि-संगनि पै ब्रज मैं तिहारी कला नै खटिहैं नहीं। कहै रतनाकर न प्रेम-तरु पैहै सूखि याकी डार-पात तृन-तूल घटिहैं नहीं।