पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१९५

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एते दूरि देसनि सौँ सखनि-सँदेसनि सौं लखन चहैं जो दसा दुसह हमारी है। कहै रतनाकर पै विषम बियोग-बिथा सबद-बिहीन भावना की भाववारी है। आने उर अंतर प्रतीत यह तातें हम रीति नीति निपट भुजंगनि की न्यारी है। आँखिनि त एक तौ सुभाव सुनिबै को लियौ काननि ते एक देखिवै की टेक धारी है ॥७२॥ दौनाचल का ना यह छटक्यौ कनूका जाहि छाइ छिगुनी पै छम-छत्र छिति छायौ है। कहै रतनाकर कूबर बधू-बर को जाहि रंच राँचें पानि परसि गँवायौ है। यह गरु प्रेमाचल दृढ़-व्रत-धारिनि को जाके भार भाव उनहूँ को सकुचायौ है। जानै कहा जानि के अजान है सुजान कान्ह ताहि तुम्हें बात सौं उड़ावन पठायौ है ॥७३॥ सुधि बुधि जाति उड़ी जिनकी उसाँसनि सौं तिनकौं पठायौ कहा धीर धरि पाती पर । कहै रतनाकर त्यौँ विरह-बलाय ढाइ मुहर लगाइ गए सुख-थिर-थाती पर।