पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२००

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मान्यौ हम मान के न मानती मनाएँ बेगि कीरति-कुमारी सुकुमारी चित-चाय की। याही सोच माहिँ हम होति दूबरी कै कहा कूबरी हू होती ना पतोहू नंदराय की ॥८४॥ बेगि ब्रहमद्रव हरि-तन-पानिप के भाजन गंचल ते उमगि तपन ते तपाक करि धावै ना। रतनाकर त्रिलोक-ओक-मंडल में उपद्रव मचावै ना॥ हर कौँ समेत हर-गिरि के गुमान गारि पल मैं पतालपुर पैठन फैलै बरसाने मैं न रावरी कहानी यह बानी कहूँ राधे आधे कान सुनि पावै ना ॥८५॥ पठावै ना। आतुर न होहु ऊधौ आवति दिवारी अबै वैसियै पुरंदर-कृपा जौ लहि जाइगी। होत नर ब्रह्म ब्रह्म-ज्ञान सौं बतावत जो कछु इहिँ नीति की प्रतीति गहि जाइगी ॥ गिरिवर धारि जौ उबारि ब्रज लीन्यौ बलि तो तो भाँति काहूँ यह बात रहि जाइगी। नातरु हमारी भारी बिरह-बलाय-संग सारी ब्रह्म-ज्ञानता तिहारी बहि जाइगी ॥८६॥