पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आवत दिवारी बिलखाइ ब्रज-बारी कह अबकै हमारे गाँव गोधन पुजैहै को। कहै रतनाकर बिबिध पकवान चाहि चाह ौं सराहि चख चंचल चलहै को॥ निपट निहोरि जोरि हाथ निज साथ ऊधौ दमकति दिब्य दीपमालिका दिखैहै को। कूवरी के कूबर तें उबरि न पा कान्ह इंद्र-कोप-लोपक गुबर्धन उठेहै को ॥८७॥ बिकसित बिपिन बसंतिकावली को रंग लखियत गोपिनि के अंग पियराने मैं । बौरे बूंद लसत रसाल-बर बारिनि के पिक की पुकार है चबाव उमगाने मैं ॥ होत पतझार झार तरुनि समूहनि कौ बैहरि बतास लै उसास अधिकाने मैं। काम-बिधि बाम की कला मैं मीन-मेष कहा ऊधौ नित बसत बसंत बरसाने मैं ॥८८।। ठाम ठाम जीवन-बिहीन दीन दीसै सबै चलति चबाई-बात तापत घनी रहै। कहै रतनाकर न चैन दिन-रैन परै मूखी पत-छीन भई तरुनि अनी रहै ॥