पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२१०

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कीरति-कुमारी के दरस-रस सद्य ही की छलकनि चाहि पलकनि पुलकाए लेत। परन न देत एक बूंद पुहुमी की कोछि पाँछि-पछि पट निज नैननि लगाए लेत ॥१०९॥ [ उद्धव के वचन श्रीभगवान प्रति] आँसुनि की धार औ उभार काँ उसाँसनि के तार हिचकीनि के तनक टरि लेन देहु । कहै रतनाकर फुरन देहु बात रंच भावनि के विषम प्रपंच सरि लेन देहु ॥ आतुर है और हू न कातर बनावौ नाथ नैसुक निवारि पीर धीर धरि लेन देहु । कहत अब हैं कहि आवत जहाँ लौँ सबै नैकुँ थिर कढ़त करेजी करि लेन देहु ॥११०॥ रावरे पठाए जोग देन काँ सिधाए हुते ज्ञान गुन गौरव के अति उदगार मैं । कहै रतनाकर पै चातुरी हमारी सबै कित धाँ हिरानी दसा दारुन अपार मैं ॥ उड़ि उधिरानी किधों ऊरध उसासनि मैं बहिौँ बिलानी कहूँ आँसुनि की धार चूर है गई धौं भूरि दुख के दरेरनि मैं छार है गई धौं बिरहानल की झार मैं ॥११॥