पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२१३

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छावते कुटीर कहूँ रम्य जमुना के तीर गौन रौन-रेती सौं कदापि करते नहीं। कहै रतनाकर बिहाइ प्रेम-गाथा गूढ स्रौन रसना मैं रस और भरते नहीं । गोपी ग्वाल बालनि के उमड़त आँसू देखि लेखि प्रलयागम हूँ नै डरते नहीं। होतो चित चाव जौ न रावरे चितावन को तजि ब्रज-गाँव इते पाय धरते नहीं ॥११७॥ भाठी के वियोग जोग-जटिल-लुकाठी लाइ लाग सौं सुहाग के अदाग पिघलाए हैं। कहै रतनाकर सुवृत्त प्रेम-साँचे माहि काँचे नेम संजम निवृत्त कै ढराए हैं। अब परि बीच खीचि बिरह-मरीचि-बिंब देत लव लाग की गुबिंद-उर लाए हैं। गोपी - ताप - तरुन - तरनि - किरनावलि के ऊधव नितांत कांत-मनि बनि आए हैं ॥११८॥