पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२१५

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जय बूंदारक-बूंद-बंद्य बुध-गन-आनंदिनि । जय मुख-चंद-प्रकासि हृदय-तम-रासि-निकदिनि । जय सुमंद मुसक्याइ कृपा-चंदक-संचारिनि । जय कबिंद-उर-अजिर सदा स्वच्छंद बिहारिनि ॥ तव बीना-पुस्तक-बाद बर रतनाकर उर मैं बसैं । सुभ सब्द-अर्थ-लालित्य दोउ गंग-औतरन मैं लसैं ॥२॥ सिंधुर-बदन-सुरंग गंग-सिर-धरन-दुलारे। गिरजा-गोद बिनोद करत मोदक मुख धारे ॥ सुभ सुंडिका उभारि धारि सीतल जल धावत । षड़मुख-सनमुख सुमुख साधि उझकत झझकावत ॥ सो लुकत ओट नंदीस की लखि दंपति-मन मुद भरै । यह बाल-खेल गनपाल कौ बिघन-जाल सुमिरत हरै ॥३॥