पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२१८

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भव-वैभव को जदपि भूप-गृह अमित उज्यारौ । तउ इक सुत कुल-दीप बिना सव लगत अँध्यारो ॥ इक दिन मानि गलानि नीर नैननि नृप ढारयो । काया-कष्ट उठाइ इष्ट-साधन निरधारचौ ॥१०॥ हिम-गिरि के प्रस्रवन-पार्व मुनि-जन-मन-हारी । सुर - किन्नर - गंधर्व - सिद्ध - चारन - सुख - कारी ॥ दोउ भामिनि लै संग भूप भृगु-आस्रम पाए । करि तप उग्र सहर्ष बर्ष सत सतत बिताए ॥११॥ है प्रसन्न ऋषिराज नृपति आदर अति कीन्यो । मन-मान्यौ बरदान दिव्य दोउ दारनि दीन्यौ। लहै केसिनी पूत एक कुल-संतति-कारी। साठ सहस सुत सुमति बिपुल-बल-विक्रम-धारी ॥१२॥ लहि नरवर बर प्रबर पलटि निज नगर पधारे । पुरजन-स्वजन-समूह भए सब सुहृद सुखारे ॥ कछु दिन बीते भई गर्भ-गरुई दुहुँ रानी । भरि और द्युति देह नवल साभा सरसानी ॥१३॥ लहि सुभ समय-निदेस केसिनी सुत इक जायौ । गुरुवर गुनि गुन तासु नाम असमंज धरायौ ॥ सुमति सलोनी जनी एक ख़ूबी अति अद्भुत । निकसे जासौं साठ सहस लघु बीज सरिस सुत ॥१४॥