पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२४०

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बन उपबन श्राराम ग्राम पुर नगर सुहाए। लसत ललित अभिराम चहूँ दिसि अति छवि छाए । बत्तिस-बन-संयुक्त बीच बूंदाबन राजत । गोबर्द्धन गिरिराज मंजु मनि-मय छबि छाजत ॥ १० ॥ दिव्य द्रुमनि की पाँति लसति सब भाँति सुहाई । ललित लता बहु लहलहाति जिनसौं लपटाई ॥ स्यामबरनि मन-हरनि नदी कृस्ना अति निर्मल । कलित-कंज-बहु-रंग बहति तहँ मंजु मधुर-जल ॥ ११ ॥ सीतल सुखद समीर धीर परिमल बगरावत । कूजत विविध विहंग मधुप गूंजत मनभावत ॥ वह सुगंध वह रंग ढंग की लखि टटकाई । लगति चित्र सी नंदनादि बन की चटकाई ॥ १२ ॥ जहँ-तहँ गोपी बूंद-बंद सानंद कलोलति । जुगल-प्रेम-मद-छाक-छकी डगमग मग डोलति ॥ थिर-बर-बैस अनूप-रूप गुन-गर्ब-गसीली। विविध-बिलास-हुलास-रास-रंग-रत्त रसीली ॥ १३ ॥ जित-तित सुरभि सबत्स चरति बिचरति सुखसानी । बिबिध-बरनि मनहरनि तरुनि सुभ-गुन-सरसानी ॥ हेम-कलित सुठि सुंग पुच्छ-मंडित-मुकताली। पग नूपुर-झनकार भूल की झलक निराली ॥१४॥