पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२५३

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यह सुनि करुना-भाव भूरि उर-अंतर जागे । है कातर विललाइ टि नृप रोवन लागे ॥ लहिं अवसर उपयुक्त लगे गुरुवर समुझावन । सिवि-दधीचि-हरिचंद-कथा कहि धीर धरावन ॥२०॥ पुनि मुनि भृगु-बरदान गृह पर ध्यान दिवाया । सुमति-सुमति-प्रति-वदित-वाक्य-श्रासय समुझायौ ।। अस्वमेध की बहुरि महा महिमा मुनि भापी । जिहि सिहात करि विघन-पात सहसा सहसाखी ॥ २१ ॥ कयौ न उचित विषाद-बाद मख-मंडप माही। यामैं सोच असाच लोक को अवसर नाही ॥ मानि मन्यु मन अकरमन्य है जी रहि जैहो । कुल-कीरत-अभिराम-सहित निज नाम नसहा ॥२२॥ ताते धीरज धारि प्रथम मख-काज पुरावा । स्वर्ग-लोक मैं अति विसोक निज ओक बनावा ॥ पुनि गुनि करौ उपाय पाप तिनके मेटन को। जाते वनै बनाव बहुरि तहँ मिलि भेटन कौ ॥ २३ ॥ अंसुमान तब उमगि गरुड़-इतिहास बखान्यौ । पितरनि-तारन-हेत बहुरि सगर-गर लागि मधुर बैननि समुझाया। साठ-सहस-छत-छन्न हिय निज नेह लगायौ ॥ २४ ॥ गंग-अवतारन ठान्यौ ॥