पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२६७

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इहि गिलानि को आनि घटा आसा धुंधराई। भयो मंद मुख-चंद दंद-उम्मस उमगाई ॥ पै गुनि इर के बैन नैन आनंद-रस बरसे । जप तप का करि विहित विसर्जन अति सुख सरसे॥४०॥ इहिँ भाँति भगीरथ भूप वर साधि जोग जप तप प्रखर । लीन्यासिहातजिहि लखि अमर मान-साहितचित-चहत बर॥४१॥