पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२६८

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सप्तम सर्ग तव नृप करि आचमन मारजन सुचि-रुचि-कारी । मानायाम पुनीत साधि चित-बृत्ति सुधारी ॥ बहुरि अंजली बाँधि ध्यान विधि को विधिवत गहि । माँगी गंग उमंग-सहित पूरव प्रसंग कहि ॥ १॥ वद्ध-अंजली देखि भूप विनवत मृदु वानी । मुसकाने विधि आनि चित्त "चिल्लू-भर पानी" ॥ लागे करन विचार वहुरि जग-हित-अनहित पर । पाप-पुन्य-फल-उचित-लाभ-मर्याद खचित पर ॥२॥ पुनि गुनि वर वरदान आपनो औं संकर को। सगर-सुतनि की साप-ताप तप नर-पति वर को । सुमिरि अखिल-ब्रह्मांड-नाथ मन माथ नवायो । सब संसय करि दूरि गंग-दैवौ ठिक ठायौ ॥३॥ किए सजग दिग-पाल ब्याल-पति-हृदय दृढ़ायौ। कोल कमठ पुचकारि भूधरनि धीर धरायौ ॥ स्वस्ति-मंत्र पढ़ि तानि तंत्र मुद-मंगल-कारी। लियौ कमंडल हाथ चतुर चतुरानन-धारी ॥४॥