पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२८

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मंजुल सघन निकुंज. कहूँ सोभा सरसानी, गुंजत मत्त मलिंद-पुंज जिनपै सुखदानी । चढ्यौ अटा छबि-छटा हेरि हिय हरष बढ़ावत, मनु रस-राज समाज साजि कै गुन-गन गावत ॥ ६॥ जहँ तहँ सरवर, झील, ताल, सोहत जल-पूरित, सलिल सिमिटि कहुँ लघु सरिता धावति धरधूरित । अति मलीन दुति-हीन बिरह-आधीन छीन-तन, मानहु खोजत फिरत जीवनाधार तिया-गन ॥ ७ ॥ एक ओर गिरिराज लसत गिरि-गौरव-कारी, परम गूढ़ सुबिलास रास-रस का अधिकारी। लहलहात है हरित-गौर-स्यामल-रंग-राँचौ, पुलकित-तन रस-सराबोर अबिचल-ब्रत साँचौ ॥ ८॥ भंजन भव-भ्रम-काच कुलिस-आगार मनोहर, गंजन हिय-तम-तोम तरनि-उदयाचल सुंदर । प्रेम-पयोधि-रतन-दायक मंदर कन जाके, कंचन-करन, हरन-कलमस पारस मनसा के ॥९॥ जित तित नाचत मोर पपीहा कल धुनि गावत, सजत सरंगी भुंग मेघ मिरदंग बजावत । कूदत करत कलोल दरत दादुर करता, तेहिँ सुभ सुखद समाज झाँझ झिल्ली झनकारें ॥१०॥