पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२८६

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-जोग-वल छोभ-छलक अब छाडि छमा-छादित चित कीजै। ब्रह्म रुद्र लौं है दयाल सुरसरि सुभ दीजै ।। नित निज-महिमा-संग गंग तुव जस जग छै। धारि जाह्नवी नाम हरषि तुव सुता कह ॥४५॥ दीन वचन सुनि भए सकल द्विज देव दुखारः । जह्व- वरनि भगीरथ बात सकारी ॥ है प्रसन्न तव जह्न कृपा-चितवनि म चाह्यौ । अति असेस अवधेस-महासम-सुकृत सराह्यौ ॥४६॥ सगर-सुतनि की दुसह दसा गुनि अति दुख मान्यो । सकल-जगत-हित माहि निजहि वाधक जिय जान्यौ । करुना-सिंधु-तरंग तुग इमि उर मैं बाढ़ी। बन्यौ न राखत गंग पलटि काननि साँ काढ़ी ॥४७॥ वैसाख सुक्ल सुभ सप्तमी गंग-नाम-गौरव गह्यौ । जब निकसि जह्नु के अंग सौं गंग जाह्नवी-पद लह्यौ ॥ ४८॥