पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३३५

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मंद मुसुकानि के अमंद दुति-दामनि की, छिति लौँ अटा सौं छटा छुष्टि छहरति है। पवन-प्रसंग अंग-रंग की तरंगनि साँ, आबी चीर चटकि गुलाबी लहरति है ॥ ७॥ आँगन मैं अंगना अन्हाइ अनगाति लट, लटपट लौटे पट पटल खवा परे। सौ. लखि औचक हँसौं हैं नंदनंदन कौं, झझकि सकुची मुरि मंजु मुरवा परे । कूलनि पै. अमल अमोल कनमूलनि के, लोल कनफूलनि के झहरि झवा परे । कंधनि पै ढहरि सहरि पुनि पीठि केस, लहरि लचीली लंक छहरि छवा परे ॥८॥ आवत निहारे हौँ गुपाल एक बाल जाकी, लाग्यौ उपमा मैं कबि कोबिद समाज है। तरुन दिनेस दिव्य अरुन अमोल पाय, छीन कटि केहरि- औ गति गजरंज है ॥ संभु कुच मुख पदमाकर दिमाक तापै घनानंद घनेरौ कच-साज है। छवि की तरंग रतनाकर है अंग मुस- कानि रस-खानि बानि पालम निवाज है ॥९॥ देवा