पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३३८

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आज उहि बाग को न भाग है सराह्या जात, हसलो हिरात द्वै हजार-जीह-धारी को ! हौं तो गई औचक ही भौचक विलोकि भई, बानक अनूप रंग रूप रुचिकारी को। संग ना सहेली जासौं बूझै कछु जान्यौ जाइ, भाग भर्यो भारी नाम गाम सुकुमारी को। जाकी बृषभानु-सुता प्रगट प्रभाव पेखि, मंद करै चंदहि अमंद मुख प्यारी को ॥१५॥ साई सुख-भोई केलि-मंदिर-अटारी वाल, छवि की छटारी छिति छूटि छहरनि है । साँसनि प्रसंग सौं उमंगि अंग आनन पै, रूप-रतनाकर-तरंग लहरति 11 भाप के लगे तें सियराइ रंग और पाइ, चारु मुख-चंद यौँ बुलाक फहरति है। पिय-परिरंभ पाइ रोहिनि रसीली मनौ, पुलकि पसीजि रस-भीजि थहरति है ॥१६॥ मानिक-मंदिर मोतिनि की चिके, ठाढ़ी तहाँ गुन रूप की खानी । लाल की माल उठाइ उरोज तैं , है सरुझावन मैं अरुझानी ॥ सामुहै होतही जाके जबान पै, आवति यौँ उपमा उमगानी । उतारत संभु पै आरति बानी ॥ १७ ॥ X X +