पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३३९

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तो तरवा - तरनी - किरनावली, साभा-छप कर मैं छबि छावै त्यौँ रतनाकर रावरी लौनी, लुनाई सबै सुठि स्वाद मैं ल्यावै जाति कडी मुख की सुखमा नहीं, माधुरी सौं अधरानि अघावै रावरी ठोड़ी के कूप अजूप सौं, रूप त्रिलोक का पानिप पावै ॥ १ . अमल अनूप रूपपानिप - तरंगनि मैं, जगमग ज्योति बानि सान सौं बसति है। कहै रतनाकर उभार भए अंग माहि, रंच सी कंचुकी अदेख उकसति है। रसिक-सिरोमनि सुजान मनमोहन की, लाख-अभिलाष-भौर-भीर दुरुसति है। अभिनव जोवन-प्रभाकर-प्रभा सौँ बाल, अरुन उदै की कंज कली सी लसति है ॥ १९ । सरसन लाग्यो रस रंग अंग-अंगनि मैं, पानिप रंगनि मैं बाल बिलसति है। कहै रतनाकर अनंग को प्रसंग पान, पाइ कपि जाइ काँति दूनी दरसति है। रति-रस लंपट मलिंद मन भावन कैं, उर अभिलाष लाख भाँति की बसति है। परम पुनीत बैस-संधि का प्रभात पाइ, अरुन उदै की कंज कली सी लसति है ॥२० ।