पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३६१

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जानति नहीं हो उर आनति नहीं है। पीर, मानति नहीं है। बीर लाख बार भाष्यौ है। बात-बल सौं ना जाइ ध्यान-पट टूटि हाय, सोर ना करौ री चित-चोर मदि राष्यों है ॥८॥ दीन बिरहीनि की दुसह दुखहाई दसा, दीसति अनोखी अति जाति न कछू भनी । कहै रतनाकर न रंचक हूँ चैन परै, मैन परै पैंडे लिए पंचबान की अनी ।। राति हूँ न चंद-बती-मन-मुरझानि जाति, दिन हूँ दिखाति ठिठुरानि हिय मैं ठनी । घाम सुधा-धाम कुमुदिनि पै बगारत औ, मानौ रवि कंजनि पै डारत है चाँदनी ॥८॥ आइ अठखेलिनि सौं अमित उमंग भरै, जिनके प्रसंग सौं तरुनि अंग थहरैं। जीवन जुड़ा रस-धाम रतनाकर को, मानस मैं जिनसौं तरंग मंजु ढह ॥ अंग लागि मेरै बिन बाधक सुखेन साई, ऐसी कब भाग-पुंज होहि कुंज डहरें । दंद हरें हीतल को, कौन नँद-नंद ? नाहि, सीतल सुगंध मंद मारुत की लहरें ॥८२॥