पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सत्तर धनत्तर से हारि रहे आनि मुख, चंद्रोदन आखिरी इलाज है पुकारे देति । झाँवरी भई है दुति बावरी भई है मति, और की कहा है सुधि रावरी बिसारे देति ॥११४॥ दुख की अहार रह्यौ बारि रह्यौ आँसनि को, साँसनि का सब्द मूरछा को नींद कल तें कहै रतनाकर पिछानै ना पिछानी जाति, सेज मैं समानी जाति कृसता कहल तें ॥ जौ पै तुम्हें बहम जियति कैसैं ऐसे तोब, कान दै सुनौ जू ही बतावति सरल तें पान काँ सकत अधरान लौँ न आवन की, अबला जियति लाल निर्बलता-बल तैं ॥११५।। कान्ह के प्रेम-व्यथा की कथा तुम ऊधौ जथाविधि भाषि सुनाई । त्यौँ रतनाकर आँसनि की अरु साँसनि की सब बात बताई ॥ एतियै और कहौ करुना करि जात मिटै चित की दुचिताई । जोग-सनेस बखानत मैं मुसकानि हूँ आनन पै कछु आई ॥११६॥ हौं ही रच्यौ वैसे ही सुरुचि-अनुकूल चुनि, साई फूल फूलत जो कुंज कल केली के । दोस बिन हाहा रोस हम पै न कीजै बलि, रोकी बन गैल छैल आवत अकेली के ॥