पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३८

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लंक लचाइ अप्सरनि की लंकहिँ कोउ तोरति, मुख मरोरि कोउ गंधर्बनि के मुखहि मरोरति । उच्च कुचहिँ उचकाय कोऊ संकर-उर सालति, ग्रीव हलाइ संकोच-भार कोउ सुर-गर घालति ॥ ५२॥ जानु-भेद-जाह्नवी जानु सौँ कोउ प्रगटावति, ऊरु-भेद-रंभा कोउ अरुनि सौँ उपजावति । किंकिनि, कंकन, नूपुर की धुनि धूम मचावति, अतन पंचसायकहिँ घेरि बहु नाच नचावति ॥ ५३॥ गाइ मल्हार छाइ आनँद कोउ सारंग-नैनी, कल कल्यान-मेघ-झर लावति कोकिल-बैनी । लेति देस की ललित तान कोउ ऐरावत-गति, दमकावति गूजरि मुद मंगल सौदामिनि-तति ॥ ५४॥ सुभ सुघरइ-दीपक-लौ सी कोउ गोप-कुमारी, भूपाली सौँ देति कान्हरायहिँ सुख भारी। ध्रुवपद सौँ इक ध्रुव-पद करति राग रागिनि काँ, सरिगम सौं इक निधिप करति स्रुति बड़-भागिनि कौँ॥५५॥ अलबेली इक तान-जोड़ के परी ख्याल मैं, आरोही अवरोही करति अलाप-चाल मैं । कोउ गमकावति गमक ठमकि कोउ तमकि तराना, कोउ ताननि के तनति तरल बहु ताना-बाना ॥ ५६ ॥