पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३८०

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राखि लै री बात मेरी, तेरी साँह, आज निज, चातुरी को उनौ सौ नमूनौ दिखरा दैतू । फिर न करौंगी मान प्रान हूँ गए पै बीर, अब के हमारौ मान-मोचन करा दै तू ॥१३५॥ कुंजनि मैं गुंजत मलिंद मतवारे फिर, बिरही बिचारे दुखधारे मन-मन मैं। कहै रतनाकर रसीले घनस्याम अंक, चाय-भरी चपला चमके छन-छन मैं ॥ ऐसें समै प्रीतम-बियोग-भावना हूँ भएँ, रहत न धीर पीर पूरि तन-तन मैं । मान कौँ न मेली करि अब अलबेली देखि, हेली लगी फूलन चमेली बन-बन मैं ॥१३६॥ कत अटवी मैं जाइ अटत अठान ठानि, परत न जानि कौन कौतुक विचारे हैं । कहै रतनाकर कमलदल हू सौँ मंजु, मृदुल अनूपम चरन रतनारे हैं। धारे उर अंतर निरंतर लड़ा हम, गावै गुन बिबिध बिनोद मोद वारे हैं। लागत जो कंटक तिहारे पाय प्यारे हाय, आइ पहिलै सा हिय बेधत हमारे हैं ॥१३७॥