पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३८१

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SRC देखि वह होन काम-बंधु को उदात वीर, इन उन किरन कलार छक्का है। कहै रत्नाकर चलनि किन कुंज अ, वा ना सवही को हटि टाकि हटाव है ।। सुनि सुभ सीख चढ़ी रथ पै मनोरथ के. खूद मन-पचना-तुरंग पै मचा है। नानै इत मान की मगर निज और उत, वेगि चलिवे काँ चंद चावुक चलावै है ॥१३८ । उठि श्राए कहाँ ने कहा तो सही अंखियानि मैं नींद घलाघल रतनाकर त्याँ अलकै विथुरी औ कपालनि पीक-झलाझल है। मधुरे अधरा लखि अंजन-लीकहिं पान की हानि चलाचल उन हाय विसासिनि कीनी दगा धारे कंद में भेज्यौ हलाहल है ॥१३९।। आए प्रभात प्रभा भरे अंगान जीति मना रस-रंग-अखारौ । बैन कहयो इमि भावती सैन सौं दाग वतावति कन्जल वारी ।। कीजत क्यों न परै पट साँ बलि है यह और भयानक कारी। वैठत तौ अधरा पर रावरे पै हिय वेधत हार हमारी॥१४०॥ जानति हौँ जैसे तुम छलके निधान कान्ह. ताहु पर मोहि मेम-पूरन-पगे लगी। कद रतनाकर कपालनि लै पीक-लीक, मोकों तुम मेरे अनुरागङि रँगे लगा।