पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३८३

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एरी मीच नीच ना मचाइ इमि खीचा खात्र, जाइ उहाँ कैसे बीच सौ गुना सहगी हम : कई रतनाकर उई हैकर और अब, अवल भई मे भई अब ना डगी हम ।। भरि भुज भैटि जो पहें तो न पैहें भले. लाहु इन नैननि के ललकि लहैं गी हम । गरब गुमान सब भेट करि तेरी एरी, सौनि हूँ की चेरी ओं कमेरी है रहेगी हम ११:४।। डारे कहूँ श्रृंगी भृगी-गन गुनि टारे कहूँ, वरद विचारे का विसारे विचरन में आनंद-अपार-पारावार के हलोरनि में, दौरि डगमग पग धारत लगन मैं ॥ पुलक गंभीर प्रेम-विहल सरीर छए. नीर अधखुले अनिमेष दृग-तन मैं । चूमि चटकाइ अँगुरी नि रस-धूमि भूमि, झांकी लेत ललकि पिनाकी मधुवन मैं ॥१४५।। लाल की ललक रंग रेलन की रूलि गई, भूलि गई हिम्मत हुमक लखि वाल की । वाल की मिसाल हूँ न हाथ इत उत हल्यो, पिचकी उबी की उबी रहिगी रसाल की।