पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३८७

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वरमन नागे मेघ मसर-समान धार, ब्रज पै प्रहार की अपार अनया चली। कहै रतनाकर अखंडन के तोपन को, लै लै ग्वाल मंडली प्रचुर पनया चली ।। हाथ जोरि हारे मानि मन्नत कगेर हारे, तोरि हारे तृन पै न नै कु प्रनया चली। भानु-तनया को ठहरान करि ध्यान लिए, मुरली लुकाई बृषभानु-तनया चली ॥१५४॥ रूपक के कुच काँ कह्यौ है संभु प्राचीननि, साई धुनि आधुनिक धुनत हनोन हैं। कहै रतनाकर पै कैसे ये महेस भए मनसिज-मीत ताकी पावत न खान हैं। नेह-न्याय-नीर मन-मानस मैं जाके, ताकै मंजु मुग्व मंडित ये वचन सरोज हैं। ज्यौँ जुग नकार प्रकृतारथ दृढ़ावत त्यौँ, जुगल उरोज-संभु ज्यावत मनोज हैं ॥१५॥ परम-प्रमोद-प्रभा-पुंज प्रतिबिंबनि ते, ब्रज रसधाम दाम दीपति को है गयौ। कहै रतनाकर त्यौं दुख-तप-ताप-तपे, जीवन कौ दंद छुट्यो छम छगुनौ छयौ ॥