पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३९१

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कैती उहि रूप मैं अनूपम प्रभा है कछू, पावत प्रबेस लेसहू जो निकरै नहीं। कहै रतनाकर के मुकुरहि ऐसौ यह, जामैं परयो पुनि प्रतिबिंब उबर नहीं ॥ दोउनि के जोग कै संजोग यह आनि बन्या, पूरब का भोग के निवे” निबरै नहीं । नैं कु समुहाइ पैठि जाइ उर मैं पै फेरि, मूरति टरै हूँ स्याम सूरति टरै नहीं ॥१६४॥ सू. हूँ सुभाइ नैं कु देखत अघाइ घाइ, घूमत गुपाल सो निरेखत बनै नहीं। कहै रतनाकर न देखें दृग-दाह होत, सेोऊ दुख दुसह उपेखत दोऊ भाँति बात बनी ऐसा है अनैसी जाहि चाहि कछुक उलेखत बनै नहीं। लेखत बनै नहीं प्रपंच पंचसायक को, देखत बनै नहीं न देखत बनै नहीं ॥१६५॥ बनै नहाँ ॥ सुनि मुरली की धुनि धाइ धाम धामनि सौं, आनि जुरी बान रौन रेती की निकाई मैं । कहै रतनाकर मचाइ स्याम संग रंग, लागी रास करन उमंग-अधिकाई मैं ॥