पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४०२

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धारे लेति लीन करि पातक-पहार पीन, जारे देति कुमति कुबास छत-छानी है। कहै रतनाकर ज्यौं धूरि उधिराए देति, चूर करि भूरि दोष-दारिद-गलानी है। ठाए देति अटल समाधि आधि ब्याधिनि काँ, सपदि बहाए देति बिपति निसानी है । गंग यह रावरी तरंग परमालय है, पावक है पौन है पृथी है किधौं पानी है ॥२२॥ संकर की सिद्धि औ समृद्धि चतुरानन की, हरि-महिमा की बृद्धि सुखमा सुधा की है। कहै रतनाकर सुरूप-रुचिराई धरे, अगुन सगुन ब्रह्म ब्यापक दुधा की है। कहत बिचारि लाख बातनि की बात एक, जामैं संक नैं कहूँ बिडंबना मुधा की है। वेद औ पुराननि का सार निरधार यहै, गंग-धार जीवन-अधार बसुधा की है ॥२३॥ मानत न नैं कु निरबान पदबी को मान, तेरी सुख-साजी बनराजी मैं धंसत जो। कहै रतनाकर सुधाकर सुधा न चहैं, तेरी जल पाइ कै अघाइ हुलसत जो ॥