पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४१

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एक बेर निज ओर पंग की होत उँचाई, सम्हरि न सकी सयानि सरकि प्रीतम-उर आई । लियौ लाल भरि अंक रंक संपति जनु पाई, भौचक सी है रही कही मुख बात न आई ॥ ६७ ॥ सावधान है छूटि भुजनि सौं पुनि बिलगाई, भ्रकुटी-कुटिल-कमान ढिठाई जानि चढ़ाई । करि गंभीर रचना चतुराई सौं बैननि मैं, छमा कराई छैल छबीली सौँ सैननि मैं ॥ ६८ ।। पुनि मन मैं कछु गुनि गोपाल मंद मुसुकाने, निरखि नबेली-ओर कटाच्छनि साँ ललचाने । अति अद्भुत उत्तर ताकौ तब दियौ रसीली, 'ओठ हलाइ ग्रीव मटकाइ रही गरबीली ॥ ६९ ॥ अधर दबाइ हलाइ ग्रीव मुसक्याइ मंद अति, भली भलौ कहि कान्ह ठानि मन अचगरि की मति । मिस करि जानि बूझि बरबसहिँ सरकि इत आए, चकपकाइ चट प्यारी सौं गा. लपटाए ।। ७० ॥ औचक अमल कपोल चूमि चट पुनि बिलगाने, ललितादिक-दिसि देखि दबाइ दृगनि इठलाने । लाइनि लोचन किये लाडिली कछु अनखाँहै , पै लखि लाल अधीर धीर धरि किये हँसौं ॥ ७१ ।।