पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४१५

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देखत मतंग ज्यौं कुरंग-पति फारै दौरि, के निहोरनि की बाट ना निहारै है। कहै रतनाकर प्रभाकर प्रभा ज्यौं ब्याम, बिन बिनती ही तम-तोम नासि डार है। पावक स्वभावक ही माने बिन द्रोह मोह, निपट निवारतहूँ दारुदोह त्यौहाँ कृपा रावरी उतावरी-समेत धाइ, बिनहीं गुहारें बेगि बिपति बिदा है ॥ ३ ॥ जारै है। हाहाकार होत्या यौँ अपार भवसागर में , रहती न कान अनाकानि है हथेरी सी। कहै रतनाकर विधाता के विधानहूँ साँ, जाती न निबेरी एती आपद घनेरी सी ॥ पदमा प्रबीन के पलोटतहूँ पाइ धाइ, ऋद्धि सिद्धिहूँ के किएँ जुगति धनेरी सी। आवती न ऐसी सुरव-नीद सेसहूँ पै नाथ, होती जो न चेरी कृपा कुसल कमेरी सी ॥४॥ टेरन न पावैं तुम्हें टेरिबी विचारत ही, आरत है धाइ कृपा दुख दरि देति है । कहै रतनाकर अघाए घाय जीवन पै, आनंद सजीवन की मूरि धरि देति है ।