पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२२

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रोकियौ रिसेवा भाँह विकट चढ़ेवी नाथ, हाथ झटकवा रोपि माथ सहते सही। धीर बहि जात्यो नैन-नीर में तिहारै जी न, तो चीर पकरि कछूक कहने सही ॥२०॥ ऐसे कछू मायामयी सौतुक निहारे नैन, जिनको न कौतुक कछूक कहि जान है । करुना अपार रतनाकर तरंगाने में, तिनके संजोग को सुजोग लहि जात है ।। गुन-तृन निनसाँ सुमेरु गरुवाई गहै, दोप-मेरु तुन सौ तुगत हरुवात है । एक तहियाइ के हिये मैं उहि जात बेगि, एक फहियाइ कै बहकि वहि जात है ॥२१॥ देखत हमारी दसा दारुन तिहारै नैन, बूद करुना की लोटि फेरि इमि छाई है। कहै रतनाकर न जात गुन दोष मान, परत प्रमान सौ जथारथ दिखाई है ॥ याही अवसेरि फेरि नीके जनि हेरी कहूँ, अब तो हमारी सब भाँति बनि आई है। राई सौ सुगुन गिरिराई है लखात तुम्है, दोष गिरिराई सौ लखात पुनि राई है ॥२२॥