पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पावेगी। पहिले हमारे सग्दार रतनाकर की, पातक-अपार-परतार पार जैह वस चौकड़ी अनेक जुगवारी वीनि, पारी फेरि जाँच की निहारी नाहिं आवैगी ॥४५॥ दान देत चेत के सहस्र गुना पैवे हेत, लाए नेत इसहू के संपति-भंडारे में। क रतनाकर कहत राम-नाम हू के, रामा को अकार चढ़े चित चटकारे ॥ हाथ में हजारा गरें माला तुलसी की नीकी, राँची रुचि जी की नित करम नकारे पै। जोरि जोरि नैन सैन करि कछु आपस में , पाप मुसकात पोले प्राच्छित हमारे पै॥४६॥ एक तुमही सौं तै। सकल नेह नातौ वस, और की तौ जानत न मानत सगाई हम । कहै रतनाकर सु वारपार धारहू मैं, साई तुम्हें देखत अपार सुखदाई हम ॥ जानते जौ काहू जानकार दूसरे के कहैं, पार जान ही मैं कछु अधिक भलाई हम । जप-तप-साधन दुसाध की देते मनभाई तुम्हें नाथ उतराई इम ॥४७|| कमाई करि,