पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४२

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बुधि-बल तीनि ही परग मैं त्रिलोक फिरे, तातें गति मूषहू की मंदता लही नहीं। एकै दंत सकल दुरंतनि के अंत करै, दंत दूसरे की तंत तनक रही नहीं ॥५॥ एक रद ही सौं रेलि बिघन समूह सबै, संभु-दृा तीसरे मैं जो पै हुनते नहीं। कहै रतनाकर बुधाकर तुम्हें तौ फेरे, अंग-होन हेरि गननाथ गुनते नहीं। होत्यौ गजराज-सुंड-पावन बिना ही काज, बिटप-अकाज-साज जो पै लुनते नहीं। ऐते बड़े कानन की कानि रहि जाती कहा, जो पै हमवार की पुकार सुनते नहीं ॥६॥ केते दुख दारिद बिलात सुंड-चालन मैं, कसमस हालन मैं केते पिचले परें । कहै रतनाकर दुरित दुरभाग भागि, मग तें बिलग बेगि त्रासनि चले परै ॥ देखि गननाथ जू अनाथनि कौँ जोरे हाथ, थपकत माथहूँ न नैंकु निचले परैं। मोदक लै मोद देन काज जब भक्तनि कौं, गोद तैं उमा के मचलाइ विचले परै ॥७॥