पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४४

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कोऊ कहैं कंज हैं कलानिधि-सुधासर के कोऊ कहैं खंज सुचि-रस के निखारे हैं । कहै रतनाकर त्यौँ साधा करि कोऊ कहैं, राधा-मुख-चंद के चकोर चटकारे हैं॥ कोऊ अंग-कानन के कहत कुरंग इन्हैं, कोऊ कहै मीन ये अनंग-केतु-वारे हैं। हम तौ न जानैं उपमा. एक मानें यहै, लोचन तिहारे दुख-मोचन हमारे हैं ॥३॥ नेह की निकाई नित छाई अंगअंग रहै, उठति उमंग रहै अमित अनंद की। कहै रतनाकर हिये मैं रस पूरि रहैं, आनि ध्यान-मनि मैं मरीचे मुख चंद की । राँची रसना मैं आठौँ जाम मधुराई रहै, ताके नाम रुचिर रसीले गुलकंद की। प्रेम-बंद नैननि निमूद नित छाई रहै, लाई रहै ललित लुनाई नँदनंद की ॥ ४ ॥ सुमिरि तुम्हैं जो हिय द्रवत न नैं कु हाय, स्रवत न आँस लै उसास-रसवारी है। कहै रतनाकर पै नित धन-धाम-बाम, काम ही के काम को पसारत पसारी है।